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Tuesday, 6 October 2015

Religion as explained by Maharshi Vyasa



Religion as explained by Maharshi Vyasa
महर्षि व्यासजीने बताया हुआ धर्म। (हिंदी में पढ़ने के लिये नीचे स्क्रोल किजिये।)

महर्षि व्यासानी सांगितलेला धर्म. (मराठीत वाचण्याकरिता खाली स्क्रोल करा.)

 
Maharshi Vyasa had been highly intelligent, well versed, knowledgeable personality during the time period of Mahabharata in India. Maharshi was always in search of knowledge used to take great pleasure in learning even from illiterate persons. For this he used to travel all the time throughout India. Once he was resting near a village. Villagers wanted to know about religion. They found this as a great opportunity to learn from the greatest all time scholar. They requested him to explain religion in short and in simple words. Maharshi told them fundamental principle of religion in just two simple words. परोपकाराय पुण्याय। meaning Help Others. Villagers were very happy that they understood the religion. Maharshi advised them that although religion is simple the practical situations in one’s life are different and at times it is difficult to understand whom to help and how to help. He gave a simple example. Imagine a situation. One man with chopper in hand is chasing another. Suddenly the first man looses sight of another man at some crossing. When he reaches the crossing he asks a person sitting there by the side of road “Did you find a man running for life? Which road he took?” The person couldn’t decide “How to help other” His logic was around the words “Help Others” By giving him right direction the man would catch other and kill him. Villagers also couldn’t solve the problem. They asked Maharshi the right answer to the question from the man.  Maharshi explained here complication is that there are two men involved who need your help and you can’t help both of them at a time. Reason is if you help the man with chopper then it is very likely that he will catch second man and kill him. So religion in this case allows you to lie to first man and tell him wrong direction the second man went. This way you are helping second man and you are following religion although you lied to first man. Religion allows you to lie because you are saving a life. This sophistication cannot be understood by a common man hence, those who have good understanding of the society and have adequate intelligence they preach detained religion. Their preaching is limited to a specific society, place and time though. Hence, you cannot behave in the same way when you go to different place. Probably, the person who invented the saying “When in Rome, behave like Romans behave”


Indians believed that there is a single religion not on earth but throughout the universe and that is defined in just two words as explained by Maharshi. I can take this logic further that not only Universe but beyond that in case some thing exists. It further can be extended not only to human beings but also to animals and those who have no life like stones etc. Indians named the philosophy as “Vedanta” and explanation of philosophy under different situations with reference society, place and time as “Smriti”. Vedanta was considered as universal and eternal. However, Smriti was neither considered universal nor eternal. This is the reason Every Manu had his own Smriti. Religion was downgraded by pastors for their personal benefits. Pastors preached that Smriti alone is religion. Indians in ancient time had knowledge which could integrate entire world in to a single family. This thought was spoiled by external invaders who ruled India for a long time (approximately 5 centuries)



Indians didn’t name their religion. In fact name is not needed when there is unique object.  Religion being only one (unique) there is no need to give a name. Presently what we find is all Smritis named as religions. Smriti must change with change in any of its characteristics (viz. Society, Place and Time). Any person is at liberty to follow any Smriti knowingly. Knowingly means after examining the Smriti with reference to society, place and time. Those who fail to follow this means they are not following religion. Such persons are terrorists and must be dealt with as terrorists deserve. Invaders were stronger and were interested in looting Indians. Indians were very rich and didn’t bother about the portion of the wealth the invaders carried to their land of origin. Majority of Indians found that what invaders were following was not part of universal religion.


महर्षि व्यासजीने बताया हुआ धर्म। (मराठीत वाचण्याकरिता खाली स्क्रोल करा.)

महर्षि व्यासजी हमेशा तीर्थयात्रा के लिये भ्रमण करते थे। ऐसाही भ्रमण करते समय आप एक गाँव के पास रुके थे। ग्रामवासियों को धर्म का अर्थ जानने की इच्छा थी। सभीने सोचा की, महर्षिसे धर्म समाझने का मौका हररोज़ नही आता। व्यासजीसे अर्थ समझाने के लिये प्रार्थना करते है।  ग्रामवासियों की प्रार्थना सुन कर व्यासजीने सरल शब्दों में बताया की धर्म का अर्थ है  परोपकाराय पुण्याय। सभी ग्रामवासियों को लगा की, धर्म का अर्थ कितना आसान है। वैसे भी सभी ग्रामवासि आपस में मिलजुल कर रहते थे, एक दुसरे की मदद़ करते थे। सभी यह सुनकर आनंदी बने। व्यासजी के आभार मानने लगे। तभी व्यासजीने बताया की, मेरा कहना पूर्ण नही हुआ। अभी सुनिये की, दुसरे की मदद़ करने का मतलब हमेशा सीधा नही होता. दूसरे कई हो सकते है। उन में से मदद करने के लिये दूसरा चुनने में कठिनाईभी हो सकती है। आपने एक उदाहरण दिया समझो एक गाय को बड़ा छुरा ले के कसाई पकड़ने की कोशिश कर रहा है। एक चौराहे पर उसे संभ्रम होता है की गाय कौनसे रास्तेसे आगे गयी. चौराहे के बाजू में बैठे हुये व्यक्ति को गाय के बारे में पूँछता है। अब उस व्यक्ति के समझने में नही आ रहा था की, मैं कैसी मदत करूँ? व्यवहार में ऐसी कठिनाइयाँ आती है। सभी को इस का हल निकालना शक्य नही हो सकता। इस लिये ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो समाज़ को अच्छी तरहसे जानता हो ओर ज्ञानी हो। आप के सभी प्रश्नो का उत्तर मैं दे सकता हूँ मगर आप को सभी स्थितिओं का ज्ञान अभी आप के स्मृती में नही होगा। वह जानने के लिये समय और ज्ञानी व्यक्ति की आवश्यकता है। महर्षि व्यासजीने जो ज्ञानी व्यक्ति की बात कही ऐसे व्यक्ति दुनिया के हर कोने में अलग अलग समयपर पैदा हुये और उन्होने समाज के हर शख्स को व्यवहारिक ज्ञान प्रदान किया। दुनिया में हम सोचते है की,  है। हमारी यह सोच गलत है। यदी हम जिन्हे अलग धर्म समझते है उन का तत्वज्ञान का विचार करें तो सभी एक जैसे ही ज्ञात होंगे। भारत में पुराने जमाने में धर्म के तत्वज्ञान को वेदान्त कहते थे। वेदान्त वैश्विक और कालातीत समझा जाता था। भारत में पुराने जमाने में यह धारणा थी की, पूरे विश्व में धर्म एकही है। इस लिये धर्म को नाम देने की आवश्यकता ही नही है। इस का मतलब यह हुआ की, वर्तमान में स्मृति के आधारपर हम धर्म में भेद करते है। मगर हम यह भूलते है की, स्मृति ना वैश्विक है ना कालातीत। स्मृति में समाज, स्थान और समय के साथ बदलाव आते है और करने पडते है। भारत में हर मनुने आपनी स्मृति अलग बनाई। ऐसा कहा जाता है कि इस्लाम में कोई बदलाव होता नही। मगर ऐसा होता तो इस्लाम में शिया, सुन्नी भेद तो पैगंबरसाहब के देहान्त के  कुछ़ही साल में हुये। इस का मतलब है, की विश्व में ऐसी कोई स्मृति नही कि जिस में बदलाव आवश्यक नही। हमे धर्म के बारे में पुजारी जो कहते है वह उन्होने अपने खुद के स्वार्थ के लिये बनाये नियम है। जभी भी कोई नियम का अतिरेक होता है तो नई स्मृती में उसे दोष दे कर बदलाव लाया जात है। मूर्तीपूजा इसी कारन कुछ स्मृतीयों में निषिद्ध मानी जाती है। यदी मूर्तीपूजा का अतिरेक नही होता, समाज मूर्तीपूजा का सही अर्थ समझता तो कोई भी स्मृती उसे निषिद्ध नही मानती. व्यवस्थापन शास्त्र में चित्रों को मान्यता है। ऐसा अनुभव है की, जो बात हजारो शब्दों में नही कह सकते वह एक चित्र के माध्यमसे कुछही सेकंद में समझाई जा सकती है। इस का मतलब यह नही की, चित्रभाषा के अतिरिक्त दुसरी कोई भाषा की आवश्यकताही नही। हर आयुध का इस्तेमाल करना आवश्यक होता है। .युद्ध कोई एक आयुधसे जीत नही सकते। इसलिये अक्षर के साथ चित्रभी आवश्यक है।



हर व्यक्ति को धर्म की सही जानकारी आवश्यक है। जिन्हे सही जानकारी नही होती वे गलत जानकारी के शिकार बन जाते है और धर्म के खिलाफ कार्य करते है। ऐसे व्यक्ति को अतिरेकी कहा जाता है। दुनिया हर व्यक्ति को शांतिसे रहने के लिये बनी है। यदी अतिरेकी शांति छिनने की कोशिश करते है तो उन्हे दुनिया में रहने का कोई अधिकार नही। उन्हे दूसरी दुनिया में भेजनाही उचित है।


महर्षि व्यासानी सांगितलेला धर्म.

महर्षि व्यास नेहमी पायी तीर्थयात्रा करत असत. तीर्थयात्रा करताना त्यांचा मुक्काम नेहमी गांवाबाहेर असे. असाच त्यांचा मुक्काम एका खेड्याबाहेर असताना काही खेडूत त्यांच्याकडे आले व त्याना विनवणी करू लागले की, धर्माचा अर्थ त्याना थोडक्यात व सोप्या शब्दात समजाऊन सांगावा. महर्षि व्यास त्या खेडुतांना म्हणाले की धर्म दोन शब्दात सांगता येतो. ते म्हणजे परोपकाराय पुण्याय। म्हणजेच दुसऱ्याला मदत करा. परंतु, व्यवहारात तो दुसरा म्हणजे कोण हे ओळखणे वाटते तितके सोपे नाही. त्याकरिता गाईला मारण्याच्या उद्देशाने तिच्या मागावर असलेल्या खाटकाचे उदाहरण दिले. त्या खाटकाने चौकात बसलेल्या व्यक्तिला गाय कोठल्या रस्त्याने गेली हे  विचारले. त्या व्यक्तिला काय उत्तर द्यावे हे सुचेना. खरे सांगितले तर गोहत्त्येचे पाप व खोटे सांगितले तरीही पाप. असे प्रसंग प्रत्येकाच्या आयुष्यात वारंवार येतात. अशा प्रसंगात कसे वागावयाचे ते ज्ञानी व्यक्ति की, ज्यांना समाजाची चांगली जाण आहे ते सांगू शकतात. भारतातच काय परंतु, संपूर्ण जगात अशा ज्ञानी व्यक्ति जन्मल्या व पुढेही जन्मतील. हे ज्ञान फक्त त्या समाजाकरिता, ज्या जागी तो समाज आहे त्या जागेकरिता व ज्या काळात हे सांगतले त्या काळामध्येच उपयोगी आहे. समाज, स्थान व वेळ या अनुषंगाने ते बदलत जाते. त्यामुळे ते माझ्याकडून ऐकण्याऐवजी तुमच्यातीलच ज्ञानी व्यक्तिला विचारा. महर्षिनी जे ज्ञानी व्यक्ति विषयी सांगितले ते सापडणेही सोपे नाही. सर्वसाधारणता समाज पुजारी लोकांना ज्ञानी व्यक्ति समजतो. याचा फायदा  पुजाऱ्यांनी घेतला. समाजात गैरसमज पसरवून व्यक्तिना अंधश्रद्धाळू बनविले व स्वतःचा फायदा करून घेतला. महावीर, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध, येशु ख्रिस्त, महमद पैगंबर याच्या सारख्या निरपेक्ष व्यक्तिमत्वाच्या ज्ञानी व्यक्ति सापडणे दुर्लभ आहे. त्यामुळे कित्येकदा रुढीनुसार जनता वागताना दिसते. असाही समज आहे की, हिंदू, ख्रिश्चन, मुस्लिम, बौध्द वगैरे अनेक धर्म पृथ्वीवर आहेत. याचे कारण तत्वज्ञानाला धर्म समजण्याऐवजी सर्व लोक कोण्या एका समाजाकरिता कोण्या एका स्थानी कोण्या एका काळी व्यवहारिक वर्तनाकरिता ज्ञानी व्यक्तिने बनविलेल्या कायद्याना-नियमाना-रुढीना धर्म समजू लागले आहेत. त्यामुळेच पृथ्वीवर कित्येक धर्म आहेत असा सर्वांचा गैरसमज झाला आहे. भारतीय मान्यता सर्व विश्वात एकच धर्म आहे याला आहे. धर्म एकच आहे तर मग त्याला नांव देण्याची आवश्यकता का? जे आपण वेगवेगळे धर्म पृथ्वीतलावर अनुभवतो ते केवळ कायदे किंवा नियम किंवा रुढी आहेत. हे ना वैश्विक आहेत ना चिरंतन. ते कमीत कमी तीन बाबी पैकी एका जरी बाबीमध्ये बदल झाल्यास बदलतात. याना प्राचिन काली भारतात स्मृती असे संबोधले जाई. स्मृती ना वैश्विक आहे ना कालातित. सर्व मनुनी आपापल्या काळात स्वतंत्र स्मृती बनविली. येशु ख्रिस्तानंतर थोड्याच वेळात कॅथालिक व प्रोटेस्टंट असे दोन विचारप्रवाह झाले. महंमद पैगंबरानंतर शिया व सुन्नी पंथ उदयास आले. याचा अर्थ असा की, कायदे किंवा नियम किंवा रुढी या कालाप्रमाणे, समाजाप्रमाणे, स्थानाप्रमाणे बदलतात. मात्र धर्माचे मूळ तत्व परोपकाराय पुण्याय। म्हणजेच दुसऱ्याला मदत करा हे वैश्विक आहेच व चिरंतन तसेच चिरंतनसुद्धा आहे. धर्म म्हणजे हे मूळ तत्व. जगातील सर्व स्मृती यावरच आधारीत आहेत. तथाकथित धर्मांचा जेंव्हा तत्वज्ञानावर आधारित शोध घेतला जातो तेंव्हा ते सारखेच काय एकच वाटतात. काही लोक मूर्तीपूजेवर आक्षेप घेतात. कोठल्याही गोष्टीचा अतिरेक टाळलाच पाहिजे. लोकांनी धर्म पाळावा म्हणून देवाची निर्मिती झाली. देव निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापी, सर्वकाली, सर्वशक्तिमान, असल्यामुळे तो प्रत्येक मनुष्य केंव्हा काय कर्म केले हे पाहत असतो. त्याचा हिशेब ठेवत असतो. तो कोणालाही कर्म करण्यास ना प्रोत्साहित करतो ना अडथळे आणतो. प्रत्येकाला मात्र ज्याच्या त्याच्या कर्माप्रमाणे फळ देतो. देवाच्या या गुणामुळे लोक त्याला घाबरुन असतात, त्याच्यावर प्रेम करतात व धर्माचे चांगल्या रीतिने पालन करतात. हे सर्वश्रृत आहे की, अक्षरापेक्षा चित्राची भाषा समजावयास सोपी असते व दीर्घकाळ स्मरणात राहते. लोकांनी निदान देवाच्या भितीने धर्म पाळावा म्हणून देवाची मूर्ति बनविण्यात आली. परंतु, हळुहळु लोकांचा समज होत गेला की, ती मूर्ति म्हणजेच देव. यामुळे मूर्तिपूजेमुळे गैरसमज पसरतात. अशी स्थिती निर्माण झाली. त्यामुळे स्मृतीमध्ये बदल करणे अनिवार्य झाले. अलिकडच्या स्मृतीमध्ये मूर्तिपूजा निषिद्ध ठरविली गेली. इतकेच काय मूर्तिभंजनाला धर्म म्हटले गेले. ज्यांना धर्माचा अर्थच माहित नाही समजत नाही त्यांना अतिरेकी समजले जाते. हे लोक अंधश्रध्दाळू असतात. अशा लोकांना सभ्य समाजात राहण्याचा अधिकार नाही. त्यांची जागा पृथ्वीतळावर नाही.

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