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Sunday, 18 September 2011

तीर्थक्षेत्रों का विकास:

भारत में तीर्थक्षेत्र विकसित है। मगर बहुत सारे सुरक्षित नही है। सभी तीर्थों को सुरक्षित करना हमारा कर्तव्य है। असुरक्षित होने का कारन मंदीरों के पास बिना नियोजन बसाई गयी बस्ती. कई जग़ह मंदीर और बस्ती में कोई दूरी भी नही। आतंकवादी इस का फ़ायदा ले कर मंदीरों को क्षति पहुँचा सकते है। वैसे भी सभी तीर्थक्षेत्र साफसुधरे रखने के लिये काफी खुली जग़ह होनी चाहिये। खुली जग़ह में बगिचा बनाकर, पौधें लगाकर वातावरण निर्मिती हो सकती है। प्रसन्न वातावरण हो तो भाविक भी खूष होंगे। यह करने के लिये जग़ह उपलब्ध होनी चाहिये। जग़ह एक ऐसी चीज़ है वह बाजार में अपने नियमोंपर मिलती है। बहुतांश तीर्थक्षेत्र में जग़ह मिलना नामुमकीन दिखाई देता है। दुनियाँ में ऐसा कोई सवाल नही उस का उत्तर ना हो। प्रयत्न करे, तरकीबे सोचे तो जमीन मिल सकती है याने उपलब्ध की जा सकती है।

तीर्थक्षेत्र के आजूबाजू में दुकाने होती है जों फूल नारियल और तत्सम चीजें भाविकों को उपलब्ध कराती है। मिठाई और प्रसाद की दुकानें होती है। खानेपिने के लिये उपहारगृह भी होते है। मक़ान भी होते है। यह सब को हटाना याने भाविकों को लगनेवाली सुविधा हटाना है। ऐसा उपाय चाहिये जिससे यह सुविधाँये मिलती रहेगी और खुली जग़ह भी उपलब्ध होगी। यह मुमकीन हो सकता है यदी पूरे क्षेत्र का नियोजन पूर्वक विस्तार किया जाये। मंदीर को मध्य बिंदू मानकर एक या उससे जादा किलोमिटर त्रिज्या का गोल (सर्कल) बनाईये। ऐसाही दूसरा सर्कल आधा किलोमिटर या उससे जादा त्रिज्या लेकर बनाईये। अंदरवाले सर्कल के बाहर और बाहर के सर्कल के अंदर जो जगह होगी वह जग़ह विकास के लिये मिल सकती है। अंदर के सर्कल के परीघ पर गोलाकार रास्ता बन सकता है। इस रास्तेसे लेकर मंदीर तक बगीचा बन सकता है। बगीचे में बडे वृक्ष नही होना चाहिये। सिर्फ पौधें हो। रास्तेसे मंदीर तक भाविकों को आने जाने के लिये पगडंडीयाँ हो। पगडंडियाँ इतनी ही चौड़ी हो कि जिसपर दो आदमी विरुद्ध दिशा में चल सके या व्हीलचेअर पर आ जा सके। जादा से जा जादा साईकल रिक्षा एक तरफ़से जा सके। इन पगडंडियों का इस्तेमाल भाविकों की भीड़ नियोजित करने के लिये भी कर सकते है। याने पगडंडियाँ उस हिसाब से बनाये।
दोनों सर्कल के बीच वाली जगह मंदीर के अलावा जो भी इस्तेमाल अब हो रहा है और रास्ते के लिये उपयोग में ला सकते है। बाहर के सर्कल के परिघपर भी चौड़ा (कम से कम 60 मिटर चौड़ा) रिंगरोड बनाया जाये। इस रिंगरोडसे आँठों दिशा में तीर्थक्षेत्रसे बाहर जानेवाले रास्ते भी उतनेही चौड़े हो। इन रास्ते के लिये जमीन भी उपर बताई हुई तरकीबसे मिल सकती है। अंदर के रिंगरोड के बाहरी परीघपर 3 से ले कर 6 मंझील तक की इमारते बनाई जाय। नीचली मंझिलपर दुकाने, उपहारगृह बने और उपरी मंझीलोंपर निवास की सुविधा हो। इन इमारतों के बाहर छ़ोटा रिंगरोड हो (करीब 45 मिटर चौड़ा)। इस रिंगरोड के परीघपर 3 से ले कर 6 मंझील तक की इमारते बनाई जाय जिन में पहले 6 मिटर उँचाई तक का हिस्सा सार्वजनिक और निजी यातायात के वाहन खड़े कर सके। उपरवाली मंजिलें निवास के लिये इस्तेमाल कर सकें। इस तरह विकास किया जाये तो ज़मीन मिलने में कोई तकलीफ़ नही होगी।
विकास करते समय कुछ पथ्य जरूरी है। इन्हे न पालने से प्रश्न खड़े हो सकते है। मेरे विचार से निम्नलिखित बेधन आवश्य है।
1.       सभी जमीन मालिकों को विश्वास में ले की जितना चटईक्षेत्र अभी इस्तेमाल कर रहे है उतानाही क्षेत्र विकास के बाद भी उन्हे मिल जाएगा। पूरा खर्चा विकासप्राकिरण उठाएगा। जमीन की कीमत नही मिलेगी।
2.      विकास करते समय पूरे क्षेत्र का विकास आराखड़ा बनाया जायगा मगर टप्पे टप्पे में विकास किया जाएगा। वर्तमान क्षेत्रधारकों में विश्वास पैदा कर के वह बनाये रखा जायेगा।
3.      जिन की जमीन पहले ली उन को पहले बसाया जायेगा। जिस तरह जमीन थी उस तरह ही निर्माण के बाद बसाया जायेगा। निर्माण कार्य के समय उन की व्यवस्था की जायेगी।
4.     निर्मिती में इंजिनिअरिंग के नियमों का पूरी तरह पालन होगा।
5.      रास्ते में कम से कम 20 मिटर चौडे रोड डिव्हायडर होंगे। बाहर के रास्तों के बीच में (रोड डिव्हाडर में) और साथ में बडे पेड लगा सकते है मगर मंदीर के आसपास के हिस्से में सिर्फ पौधे ही लगाये जाये।
यह नियम पूरे नही है। इस में और भी जोडे जाने चाहिये। आपके सुझाव आप के नाम के साथ सामिल किये जायेंगे।

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