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Tuesday, 12 June 2012

क्या भाजप काँग्रेस का विकल्प हो सकता है? या कोई नया विकल्प ढ़ँूढना चाहिये?

क्या भाजप काँग्रेस का विकल्प हो सकता है? या कोई नया विकल्प ढ़ँूढना चाहिये?
Can BJP Replace INC?
India i.e. Bharat

Bhartiya Janata Paksha

Indian National Congress
वर्तमान में राजनीति में भारत में इंडियन नॅशनल काँग्रेस (काँग्रेस) और भारतीय जनता पक्ष (भाजप)बड़े दावेदार समझे जाते है। दोनों ही सत्ता में रहने या आने का प्रयास कर रहे हैं। दोनों ही जनता के हित के बज़ाय सत्ता हथियाने का प्रयास कर रहे है। दोनों के पास भ्रष्ट नेता है। एक तरफ़ काँग्रेस पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों का अनुनय कर रही है तो दुसरी तरफ़ भाजप हिंदुओं का अनुनय कर रही हैं। काँग्रेसने करीब 90 प्रतिशत ज़नता को अपना लक्ष बनाया है।
भाजप समझता है कि, भारत में करीब 80 प्रतिशत हिंदु है। मगर यह भाजप की ग़लत फ़हमी है। भाजप सिर्फ़ उंची जातियों को प्रभावित करता रहा है। इस हिसाबसे हिंदुओं के जादा से जादा 20 प्रतिशत वोट प्राप्त हो सकते है। मगर उच्चवर्ग की जनता चुनाव में वोटिंग शायदही करती है। इसलिये भाजप को सत्ता मिलना मुश्किल है। ज़ब अटलजी भाजप में सक्रिय थें तब सभी जनता भाजप के साथ जाने के लिये तैयार थी। मोदीजी को आपने राजधर्म पालन की सलाह दी थी। यह सिर्फ सलाह समझकर मोदीजीने कोई कारवाई नही की। वर्तमान नेता अपनी पुरानी आद़तसे मज़बूर है। वे सिर्फ़ चुनाव में शायदही हिस्सा लेनेवाली जनता को लक्ष बना रहे है। यदी वोटिंग अनिवार्य किया जाय तो भाजप का आधार बढ़ सकता है। संक्षिप्त में दोनोही पक्ष जनता का विकास करने के काम में नाक़ामही रहे है। इस लिये जनता को नया विकल्प ढूँढना पड़ेगा।
जनता के हित में ऐसा राजनीति पक्ष चाहिये की, वह भारत को भ्रष्टाचार मुक्त कर के विकास करे। विकास का मतलब सिर्फ भौक्तिक विकास नही मगर अध्यात्मिक विकास भी अभिप्रेत है। इस विष में स्वामी विवेकानंदजी केविचार योग्य है। भारत का पुरातन धर्म दो हिस्सों में पहचाना जाता है। एक वेदांत व दुसरास्मृति. अध्यात्मिक विकास के लिये वेदांत का साहरा ले सकते है। स्मृति स्थल, काल, समाज के बदलाव के साथ बदलनी चाहिये। पुरानी स्मृति पूरी तरहसे बदलनी चाहिये। अब समय आया है कि, पुरानी स्मृती पूरी तरहसे नष्ट कर के नयी स्मृति बनाना चाहिये। अण्णा (अन्ना)हजारे और बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के खिलाफ़ है। भ्रष्टाचार का ख़ातमा करना चाहते है। मग़र दोनो का ही प्रयास क़ानून बना के मिटाने का है। क़ानून बन सकता है। यदी राजनीति में भ्रष्टाचार मुक्त प्रतिनिधी हो तो यह हो सक़ता है। इस का मतलब यह है कि, पहले भ्रष्टाचार मुक्त प्रतिनिधी और फिर भ्रष्टाचार मुक्त भारत. दोनो का ही रास्ता घोड़े के आगे गाड़ी जोड़ के घोड़े को गाड़ी खिंचने को कहने जैसा है। जब तक भ्रष्टाचार मुक्त, धर्मनिरपेक्ष प्रतिनिधी ना हो तब तक विकास नही हो सकता।  सामान्य हिसाबसे "धर्मनिरपेक्ष" इस शब्द का म़तलब सही तरीकेसे नही समझा जाता। सर्व धर्म समभाव या धर्म में विश्वास नही रखनेवाला ऐसा गलत मतलब समझा जाता है। धर्मनिरपेक्ष व्यक्ती धार्मिक हो सकती है। बाकी धर्मोंसे खुद के धर्म को अधिक अच्छा मान सकती है। फिर भी ऐसी व्यक्ती धर्मनिरपेक्ष हो सकती है। क्यों की ये व्यक्ति धर्म, जाति, अर्थिक स्तर याने परिस्थिती का इस्तेमाल फ़ैसला लेते समय नही करती। सिर्फ़ देश के कानून के हिसाबसे फैसला करती है। भारत में कई धर्म के ज़ाति और उपज़ाति के नागरिक रहते है। उन का अर्थिक स्तर अलग़ अलग़ है। ऐसे स्थिती में धर्मनिरपेक्ष शासन अनिवार्य है। अण्णा और बाबा इस के लिये प्रथम प्रयास करे। उस के लिये नया राजनीतिपक्ष स्थापन करना पडे तो वह भी करना चाहिये।
भ्रष्टाचार सिर्फ कानून बनानेसे ख़त्म नही हो सकता। कानून के हिसाबसे काम करनेवाला मिलना चाहिये। वर्तमान स्थिती में ऐसी व्यक्ति मिलना करीब असंभव है। कानून बनाते समय यह ध्यान में रखना चाहिये। एक अण्णाया एक बाबा इनपर विश्वास नही रख़ सकते। अण्णा या बाबा इन का आयुष्य देश के आयुष्य के हिसाबसे नगण्य है। हर समय अण्णा या बाबा मिलेंगे यह समझना एक दिवास्वप्न होगा। भारत को ऐसी प्रणाली बनानी चाहिये, ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिये कि, सत्ता में कोई भी हो भारत का विकास होना चाहिये और ग़बन बंद होना चाहिये। हज़ारों साल पहिले ज़ब धर्म की कल्पना व्यवहार में लायी गयी तब उस के पालन के लिये ईश्वर की कल्पना का इस्तेमाल किया गया। यह कल्पना पृथ्वी के इतिहास में सबसे पुरानी और सबसे उत्तम है। ऐसा शोध ना पहिले कभी हुआ ना भविष्य में होगा। इस बारे में मेरे कुछ विचार है। आप पढ़कर अपने विचार ब्लॉगपर रख सकते है। शायद मुझे आप के विचार ज़ादा व्यवहारिक लगे। भ्रष्टाचार का ख़ातमा करनेके लिये मेरे विचार का मूल ऐसा है। रोकड़ व्यवहार बंद करने चाहिये। जारी किये हुये चलन जादा से जादा 50 रुपये तक सीमित रखना चाहिये, नये तरीके के बैंक अकाऊंट शूरु करनेचाहिये। इंटरनेट के ज़रिये अर्थिक व्यवहार तात्काल होने चाहिये और वे सुरक्षित भी हो। यह सब एक दिन में नही हो सकता और वैसी कोई ज़रुरत भी नही। एक एक कर के 2 साल में भी यदी हो जाय तो भी फ़ायदेमंद होगा। उस के बाद भ्रष्टाचार करीब करीब याने 99.99 प्रतिशत खत्म होगा। देश का पूरा पैसा विकास के लिये उपलब्ध होगा। हमारा भौतिक विकास होगा। अध्यात्मिक विकास के लिये हमें जादा कुछ करने की आवश्यकता नही. सिर्फ़ अंधश्रद्धासे मुकाबला करना होगा। और स्मृति फिरसे लिखनी पड़ेगी।
हमारा सौभाग्य है की, हमारे देश में कई महात्मा हो गये. महात्माओंने हमे सही दिशा दिखाई है। हमें उस दिशा में चलना चाहिये। वोट बटोरने के मार्ग छोडने पडेंगे। यदी चुनाव प्रक्रिया में सुधार हो तो वह भी जाद़ा कठि़न नही है। चुनाव में प्रत्याशिओंपर कुछ निर्बंध ड़ालने होंगे, प्रचारखर्च शासन उठाये वगैरेह। कुछ लोगों का कहना है कि, चुनावखर्च में बढ़ोत्तरी करनेसे प्रत्याशी असली खर्चा दिखायेंगे।  मगर यदी यह पैसा प्रत्याशी का हो तो शायद ही कोई चुनाव के मैदान में उतरेगा। यह धन गैरकानूनी मार्गसे जनताही देती है। शासन यह भार उठाये तो गैरकानूनी मार्ग अपनाने की जरुरतही नही पडेगी। पूरी ज़ानकारी के लिये संबंधित लेख भी पढ़ें। आज़ जो हो रहा है वह देश के हित में नही है।
शासन का कहना है कि, रुपया का मूल्य घट रहा है। खनिज़ तेल की क़ीमत बढ़ रही है। इस लिये पेट्रोल ड़िझेल के भाव मज़बूरी में बढ़ाये ज़ा रहे है। क्या शासन के पास और विकल्प नही है? ज़रुर है। ख़ेंतों में अरबो टन कचरा निर्माण होता है। क़िसान यह कचरा ज़लाते है। यदी यही कचरा सही ढ़ंगसे इकठ्ठा किया जाय और बॉयलर में जलाया जाय तो विद्युतनिर्माण हो सकता है। यह बिज़ली इस्तेमाल कर के गाड़िया चलायी सकती है। भारत में शक्कर निर्माण के कई कारखाने है। इन में इथेनाल भी पैदा होता है। कई देशों में पेट्रोल में इथेनाल मिलाके उस का इस्तेमाल गाडियों में किया ज़ाता है। हम यह क्यों नही करते। हमे कच्चा तेल ही क्यों मँगवाना पडता है? हम खेतों की उपज़ सही ढंगसे क्यों नही गोदामों में सुरक्षित रख़ते? हम सभी ख़ेतों कों पानी क्यों नही दे सकते? जब तक हमारे पास तुषार सिंचन जैसे विकल्प के लिये पैसा नही है जब तक हम वर्तमान पद्धतिसे पानी का स्तेमाल करके खेत बरबाद करने के साथ पानी भीबरबाद करते रहेंगे? ऐसे कई प्रश्न है जिनका ज़बाब शासन नही देती। लोग उदासिन है क्यों कि, कोई भी शासन में हो विकास के लिये शासन कुछ नही करेगा। क्या अण्णा या बाबा यह देख़ते नही? क्या उन्होने कभी शासन को पूछा?  क्या उन्होने कभी शासन पर दबाव ड़ाला? अण्णा और बाबा कों इस का ज़बाब देनाही पड़ेगा। या तो आपने सही आग्रह के लिये दबाव डालना चाहिये या राजनीति में कदम रख के ऐसे लोंगों को चुनाव जितवाना चाहिये ज़ों यह और ऐसे काम निष्काम भावसे कर सकते है। यदी यह करने की हिम्मत नही तो अपने प्रयास बंद करें।

1 comment:

माधव बामणे said...

सुंदर लेख। अण्णा और बाबा यह बात समझे तो ही भारत का भला हो सकता है।

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